Friday, February 24, 2017

ब्राम्हण

मुखम् आसीद् ..बाह्वो कृत: .. ऊरू तद् अस्य .. पद्भ्यां अजायत् .. एक दृष्टि..
महाभारत_शान्तिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्मपर्व के १८८ वें अध्याय में .."महर्षि भारद्वाज _भृगु संवाद " ..
ब्रम्हा जी ने सृष्टि के आरम्भ में अपने तेज से सूर्य और अग्नि के समान प्रजापती मरीचि आदि ब्राम्हणों को ही उत्पन्न किया ..
असृजद् ब्राम्हणानेवं पूर्वं ब्रम्हा प्रजापतीन् ..
आत्मतेजोऽभि निर्वृतान् भाष्कराग्नि समप्रभाम् ..(१)..
मुनिवर .. पहले वर्णों में कोई अन्तर नहीं था ब्रम्हा जी से उत्पन्न होने के कारण पूर्ण जगत ब्राम्हण ही था .. पीछे कर्मों में भिन्नता के कारण उनमें कर्म भेद हो गया ..
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राम्ह मिदं जगत् ..
ब्रम्हणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वणतां गतम् ..(१०)
.. जो अपने ब्रम्हण धर्म को त्याग कर विषय भोग के प्रेमी तीक्ष्ण क्रोधी स्वभाव से साहस प्रिय कर्मों को पसंद करने लगे वह ब्राम्हण रक्तवर्ण क्षत्रिय हो गये ..
कामभोग प्रियास्तीक्ष्णा: क्रोधना प्रिय साहसा : ..
तयक्तस्वधर्मा रक्ताङ्गस्ते द्विजा: क्षत्रतां गता : ..(११) ..
जिन्होने गौओं तथा कृषि कर्म करने की वृत्ति को पसन्द करके अपना लिया वह अपने ब्राम्हणोचित धर्म को छोड़ कर पीत वर्ण वैश्य हो गये ..
गोभ्यो वृत्तिं समास्थाय पीता: कृष्युपजीविन: .
स्वधर्मान् नानु तिष्ठंति ते द्विजा: वैश्यतां गता : .. (१२)..
जो शौच सदाचार से भ्रष्ट हो कर हिंसा और असत्य के प्रेमी हो गये , लोभवश व्याध समान सभी निन्द्य कर्म करके जीविका चलाने लगे, वह ब्राम्हण श्याम वर्ण के हो कर शूद्रत्व को प्राप्त हुये..
हिंसानृत प्रिया लुब्धा: सर्वकर्मोपजीविन:
कृष्णा: शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजा: शूद्रतां गता: ... (१३) ...
इन्ही कर्मों के कारण ब्राम्हणत्व से अलग हो कर वे सभी ब्राम्हण अलग अलग वर्णों के हो गये .. " किन्तु उनके लिये धर्मानुष्ठान और यज्ञकर्म का कभी निषेध नहीं किया गया है "..
इत्यैते: कर्मभिर्व्यस्ता द्विजा: वर्णान्तरं गता:
धर्मो यज्ञक्रियां तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते .. (१४) ..
...... यह सम्पूर्ण विश्व ब्रम्ह से ही उत्पन्न हुआ है जो इस सम्पूर्ण जगत् को परम्ब्रम्ह परमात्मा का रूप नहीं जानता वह ब्राम्हण कहलाने का अधिकारी नहीं है , ऐसे लोगों को भिन्न भिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ता है ..
ब्रम्ह चैव परं सृष्टं यो न जानन्ति तेऽद्विजा:
तेषां बहुविधास्त्वन्यस्तत्र तत्र हि जातय: .. (१७)


Dr Tribhvan Singh

Thursday, February 16, 2017

AK – 47 राइफल के बारे में रोचक तथ्य


AK – 47 राइफल विश्व में सबसे ज्यादा उपयोग होने वाला हथियार है क्योंकि यह उपोयग करने में बेहद आसान है और इसे किसी भी मौसम में किसी भी एंगल पर चलाया जा सकता है।
AK – 47 को 1947 में रूस के एक सैनिक मिखाइल कलाशनिकोव ने बनाया था। जिस समय मिखाइल कलाशनिकोव ने AK – 47 को बनाया था तब वह युद्ध में घायल होने की वजह से अस्पताल में भर्ती थे और उनकी आयु मात्र 21 साल थी।
मिखाइल कलाशनिकोव जब छोटे थे तब वह सोचा करते थे कि वह ऐसे उपकरण बनाएंगे जिन से खेती करने में आसानी हो, पर तकदीर ने उनसे एक ऐसा हथियार बनवा दिया जिसके नाम संसार में सबसे ज्यादा हत्याएं करने का रिकार्ड दर्ज है।
पेश है इस विनाशकारी हथियार Ak 47 के बारे में कुछ रोचक तथ्य –
1. AK – 47 का पूरा नाम है – आटोमैटिक कलाशनिकोव 47। इसममें ‘आटोमैटिक’ का अर्थ है – स्वैचालित, ‘कलाशनिकोव’ मिखाइल कलाशनिकोव के नाम पर है और ’47’ वर्ष 1947 के लिए है जब इसे बनाया गया था।
2. AK – 47 से हर साल ढ़ाई लाख लोगों की हत्याएं की जाती है। इनमें से 2 लाख हत्याएं इस्लामिक आतंकवादियों जैसे कि ISIS और अलकायदा द्वारा की जाती हैं।
3. मिखाइल कैलाशनिकोव ने AK – 47 को उन रूसी सैनिकों के लिए बनाया था जिन्हें आर्कटिक (Arctic) के ठंडे मौसम में मोटे – मोटे दस्ताने पहन कर पुरानी किस्म की राइफल चलानी पड़ती थी। पर AK – 47 की खूबियों के कारण जल्द ही यह राइफल पूरी दूनिया में मशहूर हो गई और सभी देशों की सेनाएं इसका उपयोग करने लगी।
4. एके – 47 को आप नए जमाने की तलवार कह सकते हैं क्योंकि जिस तरह पुराने जमाने में सैनिकों के पास तलवार होती थी उसी तरह आज AK – 47 होती है।
5. AK – 47 राइफल में आटोमैटिक और सैमीआटोमैटिक दोनो तरह के गुण होते है। आटोमैटिक का मतलब है एक बार ट्रिगर दबाकर रखने से गोलियां लगातार चलती रहती है और सैमी आटोमैटिक का मतलब है एक बार ट्रिगर दबाने से एक गोली ही चलती है।
6. एके – 47 की लंबाई मात्र 3 फुट होती है और एक पूरी तरह से गोलियो से भरी हुई AK – 47 का वज़न मात्र साढ़े 4 किलो होता है।
7. एके – 47 से एक मिनट में बिना रूके 600 गोलियां दागी जा सकती है। मतलब कि एक सैकेंड में 10 गोलियां। इसका सेहरा AK – 47 की शानदार गैस चेम्बर और स्प्रिंग को जाता है।
8. एके – 47 की रेंज 300 से 400 मीटर तक होती है और एक नौसिखीया भी इससे अचूक निशाना लगा सकता है।
9. AK – 47 राइफल मात्र 8 पुर्जों से बनी होती है जिन्हें कोई भी एक मिनट में आसानी से अलग करके दुबारा जोड़ सकता है।
10. मिखाइल कलाशनिकोव के अनुसार वह एके – 47 से एक लाख से भी ज्यादा गोलियां दाग चुके हैं जिसके कारण वह बहरे हो गए हैं।
11. मिखाइल कलाशनिकोव को अपनी इस खोज़ पर बहुत गर्व था पर वह इस बात पर दुखी भी होते थे कि इसकी वजह से हर साल हज़ारो बेगुनाह इंसान आतंकवादियों द्वारा मार दिए जाते हैं। इस राइफल का सबसे ज्यादा गलत इस्तेमाल तालिबानी आतंकवादियों द्वारा अफ़गानिस्तान में हुआ था।
12. इस समय विश्व में लगभग 10 करोड़ एक – 47 राइफलस हैं। यह संख्या बाकी किसी भी बड़े हथियार से कहीं ज्यादा है।
13. लगभग सभी देशों में किसी आम नागरिक का अपने पास एके – 47 रखना गैरकानूनी है। भारत में यह कानून कितना सख्त है इस बात का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते है कि संजय दत्त को भी एक – 47 रखने की वजह से 5 साल की सज़ा भुगतनी पड़ी।

Major (Retd) Arun Singh

Monday, February 13, 2017

"धर्मयुद्ध और सनातनी युद्ध नियम"

"धर्मयुद्ध और सनातनी युद्ध नियम" ।
किसी बॉलीवुड वाले को अगर फ़िल्म ही बनानी है तो "वीर तक्षक" पर फ़िल्म बनाए !!
मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से एक चौथाई सदी बीत चुकी थी। तोड़े गए मन्दिरों, मठों और चैत्यों के ध्वंसावशेष अब टीले का रूप ले चुके थे, और उनमे उपजे वन में विषैले जीवोँ का आवास था।
कासिम ने अपने अभियान में युवा आयु वाले एक भी व्यक्ति को जीवित नही छोड़ा था, अस्तु अब इस क्षेत्र में हिन्दू प्रजा अत्यल्प ही थी।
एक बालक जो कासिम के अभियान के समय मात्र "आठ वर्ष" का था, वह इस कथा का मुख्य पात्र है। उसका नाम था "तक्षक"।
भारत ने पहली बार "मानवता" की हत्या देखी थी।
तक्षक के पिता सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक थे जो इसी कासिम की सेना के साथ हुए युद्ध में वीरगति पा चुके थे।
लूटती अरब सेना जब तक्षक के गांव में पहुची तो हाहाकार मच गया। स्त्रियों को घरों से "खींच खींच" कर उनकी देह लूटी जाने लगी। भय से आक्रांत तक्षक के घर में भी सब चिल्ला उठे। तक्षक और उसकी दो बहनें "भय" से कांप उठी थीं।
तक्षक की माँ पूरी परिस्थिति समझ चुकी थी, उसने कुछ देर तक अपने बच्चों को देखा और जैसे एक निर्णय पर पहुच गयी। माँ ने अपने तीनों बच्चों को खींच कर छाती में चिपका लिया और रो पड़ी।
फिर देखते देखते उस क्षत्राणी ने म्यान से तलवार खीचा और अपनी दोनों बेटियों का "सर" काट डाला। उसके बाद बेटे की ओर अंतिम दृष्टि डाली और तलवार को अपनी "छाती" में उतार लिया।
आठ वर्ष का बालक एकाएक समय को पढ़ना सीख गया था, उसने भूमि पर पड़ी मृत माँ के आँचल से अंतिम बार अपनी आँखे पोंछी, और घर के पिछले द्वार से निकल कर खेतों से होकर जंगल में भागा।
पचीस वर्ष बीत गए, तब का अष्टवर्षीय तक्षक अब बत्तीस वर्ष का पुरुष हो कर कन्नौज के प्रतापी शासक नागभट्ट द्वितीय का मुख्य अंगरक्षक था। वर्षों से किसी ने उसके चेहरे पर भावना का कोई चिन्ह नही देखा था। वह न कभी खुश होता था न कभी दुखी, उसकी आँखे सदैव अंगारे की तरह लाल रहती थीं।
उसके पराक्रम के किस्से पूरी सेना में सुने सुनाये जाते थे। अपनी तलवार के एक वार से हाथी को मार डालने वाला तक्षक सैनिकों के लिए आदर्श था।
कन्नौज नरेश नागभट्ट अपने अतुल्य पराक्रम, विशाल सैन्यशक्ति और अरबों के सफल प्रतिरोध के लिए ख्यात थे। सिंध पर शासन कर रहे "अरब" कई बार कन्नौज पर आक्रमण कर चुके थे, पर हर बार योद्धा राजपूत उन्हें खदेड़ देते।
युद्ध के "सनातन नियमों" का पालन करते नागभट्ट कभी उनका "पीछा" नहीं करते, जिसके कारण बार बार वे मजबूत हो कर पुनः आक्रमण करते थे, ऐसा पंद्रह वर्षों से हो रहा था।
आज महाराज की सभा लगी थी, कुछ ही समय पुर्व गुप्तचर ने सुचना दी थी, कि अरब के खलीफा से सहयोग ले कर सिंध की विशाल सेना कन्नौज पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुकी है और संभवत: दो से तीन दिन के अंदर यह सेना कन्नौज की "सीमा" पर होगी। इसी सम्बंध में रणनीति बनाने के लिए महाराज नागभट्ट ने यह सभा बैठाई थी।
नागभट्ट का सबसे बड़ा गुण यह था, कि वे अपने सभी "सेनानायकों" का विचार लेकर ही कोई निर्णय करते थे।
आज भी इस सभा में सभी सेनानायक अपना विचार रख रहे थे। अंत में तक्षक उठ खड़ा हुआ और बोला -
"महाराज, हमे इस बार वैरी को उसी की शैली में उत्तर देना होगा"
महाराज ने ध्यान से देखा अपने इस अंगरक्षक की ओर, बोले- अपनी बात खुल कर कहो तक्षक, हम कुछ समझ नही पा रहे।
तक्षक: महाराज, अरब सैनिक महा बर्बर हैं, उनके सतक्षकाथ सनातन नियमों के अनुरूप युद्ध कर के हम अपनी प्रजा के साथ "घात" ही करेंगे। उनको उन्ही की शैली में हराना होगा।
महाराज के माथे पर लकीरें उभर आयीं, बोले- "किन्तु हम धर्म और मर्यादा नही छोड़ सकते सैनिक"।
तक्षक ने कहा "मर्यादा का निर्वाह उसके साथ किया जाता है जो मर्यादा का अर्थ समझते हों, ये बर्बर धर्मोन्मत्त राक्षस हैं महाराज, इनके लिए हत्या और बलात्कार ही धर्म है। पर यह हमारा धर्म नही हैं, राजा का केवल एक ही धर्म होता है महाराज, और वह है प्रजा की रक्षा।
देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें महाराज, जब कासिम की सेना ने दाहिर को पराजित करने के पश्चात प्रजा पर कितना "अत्याचार" किया था।
ईश्वर न करे, यदि हम पराजित हुए तो बर्बर अत्याचारी अरब हमारी स्त्रियों, बच्चों और निरीह प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, यह महाराज जानते हैं।"
महाराज ने एक बार पूरी सभा की ओर निहारा, सबका मौन तक्षक के तर्कों से सहमत दिख रहा था। महाराज अपने मुख्य सेनापतियों मंत्रियों और तक्षक के साथ गुप्त सभाकक्ष की ओर बढ़ गए। अगले दिवस की संध्या तक कन्नौज की पश्चिम सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चूका था, और आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा।
आधी रात्रि बीत चुकी थी। अरब सेना अपने शिविर में निश्चिन्त सो रही थी। अचानक तक्षक के संचालन में कन्नौज की एक चौथाई सेना अरब शिविर पर टूट पड़ी।
अरबों को किसी हिन्दू शासक से रात्रि युद्ध की आशा न थी। वे उठते,सावधान होते और हथियार सँभालते इसके पुर्व ही आधे अरब गाजर मूली की तरह काट डाले गए। इस भयावह निशा में तक्षक का शौर्य अपनी पराकाष्ठा पर था। वह अपनी तलवार चलाते जिधर निकल पड़ता उधर की भूमि शवों से पट जाती थी। उषा की प्रथम किरण से पुर्व अरबों की दो तिहाई सेना मारी जा चुकी थी।
सुबह होते ही बची सेना पीछे भागी, किन्तु आश्चर्य!
महाराज नागभट्ट अपनी शेष सेना के साथ उधर तैयार खड़े थे। दोपहर होते होते समूची अरब सेना काट डाली गयी। अपनी बर्बरता के बल पर विश्वविजय का स्वप्न देखने वाले आतंकियों को पहली बार किसी ने ऐसा उत्तर दिया था।
विजय के बाद महाराज ने अपने सभी सेनानायकों की ओर देखा, उनमे तक्षक का कहीं पता नही था।
सैनिकों ने युद्धभूमि में तक्षक की खोज प्रारंभ की तो देखा- लगभग हजार अरब सैनिकों के शव के बीच तक्षक की मृत देह दमक रही थी। उसे शीघ्र उठा कर महाराज के पास लाया गया।
कुछ क्षण तक इस अद्भुत योद्धा की ओर चुपचाप देखने के पश्चात महाराज नागभट्ट आगे बढ़े और तक्षक के चरणों में अपनी तलवार रख कर उसकी मृत देह को प्रणाम किया।
युद्ध के पश्चात युद्धभूमि में पसरी नीरवता में भारत का वह महान सम्राट गरज उठा-
"आप आर्यावर्त की वीरता के शिखर थे तक्षक.... भारत ने अब तक मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना सीखा था, आप ने मातृभूमि के लिए प्राण लेना सिखा दिया। भारत युगों युगों तक आपका आभारी रहेगा।"
इतिहास साक्षी है, इस युद्ध के बाद अगले तीन शताब्दियों तक अरबों में भारत की तरफ आँख उठा कर देखने की हिम्मत नही हुई।
Nitin Bhadauriya

Friday, February 10, 2017

जानें JNU का सच

                                                                        जानें JNU का सच !
बहुत दिनों से एक बात समझ में नहीं आ रही थी कि JNU के Genes में Anti-India Virus कैसे आ गया। अब मालूम पड़ा कि मामला क्या है। एक थे महान कम्युनिस्ट नेता, नाम था ‘कामरेड सज्जाद जहीर’। ये मियाँ साहब, पहले तो Progressive Writers Association यानि ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ’ के रहनुमा बनकर उभरे और अपनी किताब ’अंगारे’ से इन्होने अपने लेखक होने का दावा पेश किया। बाद में ये जनाब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वेसर्वा बने। मगर इनकी रूह में तो इस्लाम बसता था इसीलिए 1947 मे नये इस्लामी देश बने पाकिस्तान में जाकर बस गये। इनकी बेगम ‘रजिया सज्जाद जहीर’ भी उर्दू की लेखिका थीं।

सज्जाद जहीर, 1948 में कलकत्ता के कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन में भाग लेने कलकत्ता पहुँचे। वहाँ कुछ मुसलमानों ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) से अलग होकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ पाकिस्तान (CPP) का गठन कर लिया, जो बांग्लादेश मे फली-फूली। मगर पाकिस्तान में सज्जाद जहीर, फैज अहमद फैज, रजिया सज्जाद जहीर और कुछ पाकिस्तानी जनरलों ने मिल कर ’रावलपिंडी षडयंत्र’ केस में पाकिस्तान में सैन्य तख्ता पलट का प्रयास किया और पकडे जाने पर जेल में डाल दिये गये। सज्जाद जहीर और फैज अहमद फैज को लंबी सजाएं सुनाई गईं। अब आगे की कथा सुनिये :-
इन मियाँ साहब, सज्जाद जहीर और रजिया जहीर की चार बेटियाँ थीं : 1. नजमा जहीर बाकर, पाकिस्तानी सज्जाद जहीर की सबसे बडी बेटी नेहरू के मदरसे JNU मे Bio-Chemistry की प्रोफेसर हैं। 2. दूसरी बेटी नसीम भाटिया है। 3. सज्जाद जहीर की तीसरी बेटी है ‘नादिरा बब्बर’ जिसने फिल्म एक्टर और कांग्रेस सांसद राज बब्बर से शादी की है। इनके 2 बच्चे हैं, ‘‘आर्य बब्बर और जूही बब्बर’’ 4. सज्जाद जहीर की चौथी और सबसे छोटी बेटी का नाम है ‘नूर जहीर’, ये मोहतरमा भी लेखिका है और JNU से जुड़ी हैं। नूर जहीर ने शादी नहीं की और जीवन भर अविवाहित रहने के अपने फैसले पर आज भी कायम है। चूँकि नूर जहीर ने शादी ही नहीं की तो बच्चों का तो सवाल ही पैदा नही होता। मगर रूकिये, यहाँ आपको निराश होना पड़ेगा। अविवाहित होने के बावजूद, नूर जहीर के 4 बच्चे हैं, वो भी 2 अलग-अलग पुरूषों से।
इन्हीं नूर जहीर और ए. दास गुप्ता की दूसरी संतान है ‘पंखुडी जहीर’। अरे नहीं चौंकिये मत, ये वही पंखुडी जहीर है, जिसने कुछ ही वर्षों पहले दिल्ली में खुलेआम ’किस ऑफ लव (Kiss of Love)' के नाम से अश्लील इवेंट आयोजित किया था। जी हाँ, ये वही है जो कन्हैया कुमार वाले मामले में सबसे ज्यादा उछल-कूद मचा रही थी। इसे JNU में कन्हैया कुमार की सबसे विश्वस्त सहयोगी माना जाता है। खुलेआम सिगरेट, शराब और अनेकों व्यसनों की शौकीन इन जैसी लडकियाँ जब महिला अधिकारों के नाम पर बवंडर मचाती हैं तो सच में पूछ लेने को दिल करता है कि तुम्हारा खानदान क्या है ? और क्या हैं तुम्हारे संस्कार ??
बिनब्याही माँ की 2 अलग-अलग पुरूषों से उत्पन्न 4 संतानों मे से एक ‘पंखुडी जहीर’ जैसी औरतें, खुद औरतों के नाम पे जिल्लत का दाग हैं। शायद यह पोस्ट पाकिस्तान, इस्लामियत, कम्युनिस्टां का सड़न भरा अतीत, इनकी मानसिकता, इनका खानदान और इनके संस्कार बयां करने को काफी है। इन्हीं जैसे लोगों ने JNU की इज्जत में चार चाँद लगा रखे हैं।
पाकिस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी आज तक 1 प्रतिशत वोट भी नहीं जुटा पाई है। कुल 176 वोट मिलते हैं इन्हे और पाकिस्तानी सज्जाद जहीर की औलादें कम्युनिस्टों का चोला पहन कर भारत की बर्बादी के नारे लगा रहे हैं ! समझ मे आया ! JNU के कामरेडों का पाकिस्तान प्रेम और कश्मीर के मुद्दे पर नौटंकी करने का असली उद्देश्य ! क्या कारण है कि ये पंखुडी दास गुप्ता ना लिख कर खुद को पंखुडी जहीर लिखती हैं ?
और हाँ ! इसकी सगी मौसी के लडके नादिरा बब्बर और राज बब्बर की संतान फिल्म एक्टर आर्य बब्बर का घर का नाम ‘सज्जाद’ है तथा श्रीमान राज बब्बर की एक अदद बीवी और थीं, बेहतरीन अभिनेत्री ‘स्मिता पाटिल’, जिन्हें राज बब्बर से शादी के बाद आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा था।

Manoj Attray

चार्वाक दर्शन का नाम ही विकास है ।

यावत जीवेत सुखं जीवेत
ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत।।
भस्मीभूतस्य देहस्य
पुनरागमनम कुतः ।।
चार्वाक दर्शन का नाम ही विकास है ।
इस जन्म में जीभ के स्वाद और शरीर के सुख प्राप्त करने के लिए छल क्षद्म झूंठ फरेब कपट आदि से धन एकत्रित करके जीवन की अभिलाषा और प्राप्ति व्यक्ति गत विकास है ।
और प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन करके लोगों के जीवन को सुखमय बनाने का दिखावा करना सबका विकास है ।
और इसी को समझने के लिए कि इसको किस तरह रोका जाय उसको विश्वविद्यालयों में विदेशी लंगूरों के विचार को आयातित करके डिग्री बाँटना एक नया सिद्धान्त है जिसको #Sustainable_Development कहते हैं।
मानव के चरित्र के विकास से इस आधुनिक विकास के सिद्धांत का कोई लेना देना नही है।
बाजारवाद और उपभोक्तावाद के नए और विस्तृत चेहरे को ही सरकारी भाषा में विकास कहते हैं ।
Credits : Dr Tribhuvan Singh

Wednesday, February 8, 2017

आज़ाद के बलिदान के बाद क्या हुआ उनके परिवार का हश्र ??

आज़ाद के बलिदान के बाद क्या हुआ उनके परिवार का हश्र, जानकार नम हो जाएँगी आपकी आँखें--------
भारत माता के अमर बलिदानी सपूत चंद्रशेखर आज़ाद और उनकी माता की पुण्य स्मृतियों के साथ इस कहानी का जन्म हुआ ! यह कहानी आजाद की शहादत के बाद जन्मी ! यह कहानी हम भारतीयों की कहानी कहती है ! सच की पृष्ठभूमि से भी परिचित हो लीजिये ! इस कहानी का जिक्र करना बेहद आवश्यक इसलिए है क्यूंकि आप इसे समझ सकें कि तब कैसे कैसे लोग थे और आज कैसे कैसे लोग है !
चंद्रशेखर आजाद का क्रांतिकारी जीवन का केंद्र बिंदु झांसी रहा था ! जहाँ क्रांतिकारियों में उनके 2-3 करीबियों में से एक सदाशिव राव मलकापुरकर रहते थे ! चंद्रशेखर आजाद अपने जीवन में बहुत अधिक गोपनीयता रखते थे इस कारण
वह आजीवन कभी भी पुलिस द्वारा पकडे नहीं गए थे ! उन्हें इसका अहसास था कि उनके साथियों में कुछ कमजोर कड़ी है जो पुलिस की प्रताड़ना पर विश्वसनीय नहीं रह जायेंगे ! लेकिन सदाशिव जी उन विश्वसनीय लोगों में से थे जिन्हें आजाद अपने साथ मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा गाँव ले गए थे और अपने पिता सीताराम तिवारी एवं माता जगरानी देवी से मिलवाया था !
सदाशिव राव आजाद की मृत्यु के पश्चात भी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष करते रहे एवं कई बार जेल भी गए ! आजादी के बाद जब वह स्वतंत्र हुए तो वह आजाद के माता पिता का हालचाल पूछने उनके गाँव पहुंचे ! वहां उन्हें पता चला कि चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के कुछ वर्षों बाद उनके पिता जी की भी मृत्यु हो गयी थी !
आज़ाद के भाई की मृत्यु भी इससे पहले ही हो चुकी थी ! अत्यंत निर्धनावस्था में हुई उनके पिता की मृत्यु के पश्चात आज़ाद की निर्धन निराश्रित वृद्ध माताश्री उस वृद्धावस्था में भी किसी के आगे हाथ फ़ैलाने के बजाय जंगलों में जाकर लकड़ी और गोबर बीनकर लाती थी तथा कंडे और लकड़ी बेचकर अपना पेट पालती रहीं ! लेकिन वृद्ध होने के कारण इतना काम नहीं कर पाती थीं कि भरपेट भोजन का प्रबंध कर सकें !
अतः कभी ज्वार कभी बाज़रा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं क्योंकि दाल चावल गेंहू और उसे पकाने का ईंधन खरीदने लायक धन कमाने की शारीरिक सामर्थ्य उनमे शेष ही नहीं रह गयी थी !
सबसे शर्मनाक बात तो यह कि उनकी यह स्थिति देश को आज़ादी मिलने के 2 वर्ष बाद (1949 ) तक जारी रही ! (यहां आज की पीढ़ी के लिए उल्लेख करना आवश्यक है कि उस दौर में ज्वार और बाज़रा को ”मोटा अनाज” कहकर बहुत उपेक्षित और हेय दृष्टि से देखा जाता था और इनका मूल्य गेंहू से बहुत कम होता था)
सदाशिव राव ने जब यह देखा तो उनका मन काफी व्यथित हो गया ! एक महान राष्ट्र भक्त की माँ दिन के एक वक़्त के भोजन के लिए तरस रही थी ! जब उन्होंने गाँव से कोई मदद न मिलने का कारण पता किया तो पता चला कि चंद्रशेखर आजाद की माँ को एक डकैत की माँ कहकर उलाहना दिया जाता थी और समाज ने उनका बहिष्कार सा किया हुआ था !
आजाद जी की माँ की इस दुर्दशा को देख सदाशिव जी ने उनसे अपने साथ झांसी चलने को कहा परन्तु उस स्वाभिमानी माँ ने अपनी उस दीनहीन दशा के बावजूद उनके साथ चलने से इनकार कर दिया था ! तब चंद्रशेखर आज़ाद जी को दिए गए अपने एक वचन का वास्ता देकर सदाशिव जी उन्हें अपने साथ अपने घर झाँसी लेकर आये थे, क्योंकि उनकी स्वयं की स्थिति अत्यंत जर्जर होने के कारण उनका घर बहुत छोटा था
अतः उन्होंने आज़ाद के ही एक अन्य मित्र भगवान दास माहौर के घर पर आज़ाद की माताश्री के रहने का प्रबंध किया था और उनके अंतिम क्षणों तक उनकी सेवा की ! मार्च 1951 में जब आजाद की माँ जगरानी देवी का झांसी में निधन हुआ तब सदाशिव जी ने उनका सम्मान अपनी माँ के समान करते हुए उनका अंतिम संस्कार स्वयं अपने हाथों से ही किया था ! अपनी अत्याधिक जर्जर आर्थिक स्थिति के बावजूद सदाशिव जी ने चंद्रशेखर आज़ाद को दिए गए अपने वचन के अनुरूप आज़ाद की माताश्री को अनेक तीर्थस्थानों की तीर्थ यात्रायें अपने साथ ले जाकर करवायी थीं !
अब यहाँ से प्रारम्भ होता है वो खूनी अध्याय जो राक्षसी राजनीति के उस भयावह चेहरे और चरित्र को उजागर करता है जिसके रोम-रोम में चंद्रशेखर आज़ाद सरीखे क्रांतिकारियों के प्रति केवल और केवल जहर ही भरा हुआ था !
चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री के देहांत के पश्चात झाँसी की जनता ने उनकी स्मृति में उनके नाम से एक सार्वजनिक स्थान पर पीठ का निर्माण किया ! प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने इस निर्माण को झाँसी की जनता द्वारा किया हुआ अवैध और गैरकानूनी कार्य घोषित कर दिया था ! किन्तु झाँसी के राष्ट्रभक्त नागरिकों ने तत्कालीन सरकार के उस शासनादेश को महत्व न देते हुए उस पीठ के पास ही चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित करने का फैसला कर लिया था !
मूर्ती बनाने का कार्य चंद्रशेखर आजाद के ख़ास सहयोगी कुशल शिल्पकार रूद्र नारायण सिंह जी को सौपा गया ! उन्होंने फोटो को देखकर आज़ाद की माताश्री के चेहरे की प्रतिमा तैयार कर दी थी ! झाँसी के नागरिकों के इन राष्ट्रवादी तेवरों से तिलमिलाई बिलबिलाई तत्कालीन सरकार अब तक अपने वास्तविक राक्षसी रूप में आ चुकी थी ! जब सरकार को यह पता चला कि आजाद की माँ की मूर्ती तैयार की जा चुकी है और सदाशिव राव, रूपनारायण, भगवान् दास माहौर समेत कई क्रांतिकारी झांसी की जनता के सहयोग से मूर्ती को स्थापित करने जा रहे है तो
उसने अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापना को देश, समाज और झाँसी की कानून व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर उनकी मूर्ति स्थापना के कार्यक्रम को प्रतिबंधित कर पूरे झाँसी शहर में कर्फ्यू लगा दिया ! चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात कर दी गई ताकि अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति की स्थापना ना की जा सके !
तत्कालीन सरकार के इस राक्षसी स्वरूप के खिलाफ आज़ाद के अभिन्न सहयोगी सदाशिव जी ने ही कमान संभाली थी और चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति अपने सिर पर रखकर इस ऐलान के साथ कर्फ्यू तोड़कर अपने घर से निकल पड़े थे कि यदि चंद्रशेखर आज़ाद ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण बलिदान कर दिए थे तो आज मुझे अवसर मिला है कि उनकी माताश्री के सम्मान के लिए मैं अपने प्राणों का बलिदान कर दूं !
अपने इस ऐलान के साथ आज़ाद की माताश्री की मूर्ति अपने सिर पर रखकर पीठ की तरफ चल दिए सदाशिव जी के साथ झाँसी के राष्ट्रभक्त नागरिक भी चलना प्रारम्भ हो गए थे ! अपने आदेश की झाँसी की सडकों पर बुरी तरह उड़ती धज्जियों से तिलमिलाई तत्कालीन राक्षसी सरकार ने अपनी पुलिस को सदाशिव जी को गोली मार देने का आदेश दे डाला था
किन्तु आज़ाद की माताश्री की प्रतिमा को अपने सिर पर रखकर पीठ की तरफ बढ़ रहे सदाशिव जी को जनता ने चारों तरफ से अपने घेरे में ले लिया था अतः सरकार ने उस भीड़ पर भी गोली चलाने का आदेश दे डाला था ! परिणामस्वरूप झाँसी की उस निहत्थी निरीह राष्ट्रभक्त जनता पर तत्कालीन नृशंस सरकार की पुलिस की बंदूकों के बारूदी अंगारे मौत बनकर बरसने लगे थे सैकड़ों लोग घायल हुए, दर्जनों लोग जीवन भर के लिए अपंग हुए और तीन लोग मौत के घाट उतर गए थे !
तत्कालीन राक्षसी सरकार के इस खूनी तांडव का परिणाम यह हुआ था कि चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित नहीं हो सकी थी और आते जाते अनजान नागरिकों की प्यास बुझाने के लिए उनकी स्मृति में बने प्याऊ को भी पुलिस ने ध्वस्त कर दिया था !
अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की 2-3 फुट की मूर्ति के लिए उस देश में 5 फुट जमीन भी देने से तत्कालीन यमराजी सरकार ने इनकार कर दिया था जिस देश के लिए चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे !
एक और कहाँ चन्द्र शेखर आजाद, उनकी माँ जगरानी देवी, एवं झांसी की जनता वहीँ दूसरी और भावरा गाँव, वहाँ का समाज और तत्कालीन सरकार ! आज भी हमारा समाज दो भागों में बंटा दिखाई देता है, लोग दो तरफ खड़े हुए है !
इस कहानी से देश के सभी लोगों को विशेषकर आज की नौजवान पीढ़ी के हर सदस्य को परिचित होना चाहिए ! क्योंकि वर्षों से कुटिलता और कपट के साथ सत्ताधीशों ने अपने राक्षसी कारनामों को हमसे आपसे छुपाकर रखा है और इतने वर्षों से हमे सिर्फ यह समझाने की कोशिश की गई है कि देश की आज़ादी का इकलौता ठेकेदार परिवार विशेष ही है
Credits : Shruti Singh 

Biography of Eric Garcetti

  Eric Garcetti was born on February 4, 1971, in Los Angeles, California. He is the son of Gil Garcetti, a former Los Angeles County Distric...