मुखम् आसीद् ..बाह्वो कृत: .. ऊरू तद् अस्य .. पद्भ्यां अजायत् .. एक दृष्टि..
महाभारत_शान्तिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्मपर्व के १८८ वें अध्याय में .."महर्षि भारद्वाज _भृगु संवाद " ..
ब्रम्हा जी ने सृष्टि के आरम्भ में अपने तेज से सूर्य और अग्नि के समान प्रजापती मरीचि आदि ब्राम्हणों को ही उत्पन्न किया ..
असृजद् ब्राम्हणानेवं पूर्वं ब्रम्हा प्रजापतीन् ..
आत्मतेजोऽभि निर्वृतान् भाष्कराग्नि समप्रभाम् ..(१)..
मुनिवर .. पहले वर्णों में कोई अन्तर नहीं था ब्रम्हा जी से उत्पन्न होने के कारण पूर्ण जगत ब्राम्हण ही था .. पीछे कर्मों में भिन्नता के कारण उनमें कर्म भेद हो गया ..
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राम्ह मिदं जगत् ..
ब्रम्हणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वणतां गतम् ..(१०)
.. जो अपने ब्रम्हण धर्म को त्याग कर विषय भोग के प्रेमी तीक्ष्ण क्रोधी स्वभाव से साहस प्रिय कर्मों को पसंद करने लगे वह ब्राम्हण रक्तवर्ण क्षत्रिय हो गये ..
कामभोग प्रियास्तीक्ष्णा: क्रोधना प्रिय साहसा : ..
तयक्तस्वधर्मा रक्ताङ्गस्ते द्विजा: क्षत्रतां गता : ..(११) ..
जिन्होने गौओं तथा कृषि कर्म करने की वृत्ति को पसन्द करके अपना लिया वह अपने ब्राम्हणोचित धर्म को छोड़ कर पीत वर्ण वैश्य हो गये ..
गोभ्यो वृत्तिं समास्थाय पीता: कृष्युपजीविन: .
स्वधर्मान् नानु तिष्ठंति ते द्विजा: वैश्यतां गता : .. (१२)..
जो शौच सदाचार से भ्रष्ट हो कर हिंसा और असत्य के प्रेमी हो गये , लोभवश व्याध समान सभी निन्द्य कर्म करके जीविका चलाने लगे, वह ब्राम्हण श्याम वर्ण के हो कर शूद्रत्व को प्राप्त हुये..
हिंसानृत प्रिया लुब्धा: सर्वकर्मोपजीविन:
कृष्णा: शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजा: शूद्रतां गता: ... (१३) ...
इन्ही कर्मों के कारण ब्राम्हणत्व से अलग हो कर वे सभी ब्राम्हण अलग अलग वर्णों के हो गये .. " किन्तु उनके लिये धर्मानुष्ठान और यज्ञकर्म का कभी निषेध नहीं किया गया है "..
इत्यैते: कर्मभिर्व्यस्ता द्विजा: वर्णान्तरं गता:
धर्मो यज्ञक्रियां तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते .. (१४) ..
...... यह सम्पूर्ण विश्व ब्रम्ह से ही उत्पन्न हुआ है जो इस सम्पूर्ण जगत् को परम्ब्रम्ह परमात्मा का रूप नहीं जानता वह ब्राम्हण कहलाने का अधिकारी नहीं है , ऐसे लोगों को भिन्न भिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ता है ..
ब्रम्ह चैव परं सृष्टं यो न जानन्ति तेऽद्विजा:
तेषां बहुविधास्त्वन्यस्तत्र तत्र हि जातय: .. (१७)
Dr Tribhvan Singh
महाभारत_शान्तिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्मपर्व के १८८ वें अध्याय में .."महर्षि भारद्वाज _भृगु संवाद " ..
ब्रम्हा जी ने सृष्टि के आरम्भ में अपने तेज से सूर्य और अग्नि के समान प्रजापती मरीचि आदि ब्राम्हणों को ही उत्पन्न किया ..
असृजद् ब्राम्हणानेवं पूर्वं ब्रम्हा प्रजापतीन् ..
आत्मतेजोऽभि निर्वृतान् भाष्कराग्नि समप्रभाम् ..(१)..
मुनिवर .. पहले वर्णों में कोई अन्तर नहीं था ब्रम्हा जी से उत्पन्न होने के कारण पूर्ण जगत ब्राम्हण ही था .. पीछे कर्मों में भिन्नता के कारण उनमें कर्म भेद हो गया ..
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राम्ह मिदं जगत् ..
ब्रम्हणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वणतां गतम् ..(१०)
.. जो अपने ब्रम्हण धर्म को त्याग कर विषय भोग के प्रेमी तीक्ष्ण क्रोधी स्वभाव से साहस प्रिय कर्मों को पसंद करने लगे वह ब्राम्हण रक्तवर्ण क्षत्रिय हो गये ..
कामभोग प्रियास्तीक्ष्णा: क्रोधना प्रिय साहसा : ..
तयक्तस्वधर्मा रक्ताङ्गस्ते द्विजा: क्षत्रतां गता : ..(११) ..
जिन्होने गौओं तथा कृषि कर्म करने की वृत्ति को पसन्द करके अपना लिया वह अपने ब्राम्हणोचित धर्म को छोड़ कर पीत वर्ण वैश्य हो गये ..
गोभ्यो वृत्तिं समास्थाय पीता: कृष्युपजीविन: .
स्वधर्मान् नानु तिष्ठंति ते द्विजा: वैश्यतां गता : .. (१२)..
जो शौच सदाचार से भ्रष्ट हो कर हिंसा और असत्य के प्रेमी हो गये , लोभवश व्याध समान सभी निन्द्य कर्म करके जीविका चलाने लगे, वह ब्राम्हण श्याम वर्ण के हो कर शूद्रत्व को प्राप्त हुये..
हिंसानृत प्रिया लुब्धा: सर्वकर्मोपजीविन:
कृष्णा: शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजा: शूद्रतां गता: ... (१३) ...
इन्ही कर्मों के कारण ब्राम्हणत्व से अलग हो कर वे सभी ब्राम्हण अलग अलग वर्णों के हो गये .. " किन्तु उनके लिये धर्मानुष्ठान और यज्ञकर्म का कभी निषेध नहीं किया गया है "..
इत्यैते: कर्मभिर्व्यस्ता द्विजा: वर्णान्तरं गता:
धर्मो यज्ञक्रियां तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते .. (१४) ..
...... यह सम्पूर्ण विश्व ब्रम्ह से ही उत्पन्न हुआ है जो इस सम्पूर्ण जगत् को परम्ब्रम्ह परमात्मा का रूप नहीं जानता वह ब्राम्हण कहलाने का अधिकारी नहीं है , ऐसे लोगों को भिन्न भिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ता है ..
ब्रम्ह चैव परं सृष्टं यो न जानन्ति तेऽद्विजा:
तेषां बहुविधास्त्वन्यस्तत्र तत्र हि जातय: .. (१७)
Dr Tribhvan Singh